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Kaise Kare Arhar Ki Kheti
असिंचित क्षेत्रों में अरहर की खेती लाभकारी सिद्ध हो सकती है क्योंकि गहरी जड़ एवं अधिक तापक्रम की स्तिथि में पत्ती मोड़ने के गुण के कारण यह शुष्क क्षेत्रों में सर्व उपयुक्त फसल है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश देश के प्रमुख अरहर उत्पादक राज्य हैं। अरहर की दाल में लगभग 20-21 प्रतिशत प्रोटीन पाई जाती है, साथ ही इस प्रोटीन का पाच्यमूल्य भी अन्य प्रोटीन से अच्छा होता है।
किसान भाइयों, अरहर हमारे देश की प्रमुख दलहनी फसल है जिसे मुख्य रुप से खरीफ के मौसम में उगाया जाता है । यह फसल दलहन उत्पादन के साथ-साथ वातावरण की नाइट्रोजन को भूमी के अंदर एकत्रित करती रहती है जिससे भूमि की उर्वरता में भी सुधार होता है। अरहर की दीर्घकालीन प्रजातियाँ मृदा में 150-200 कि0ग्रा0 तक वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर मृदा की उर्वरता एवं उत्पादकता में वृद्धि करती है। शुष्क क्षेत्रों में अरहर किसानों द्वारा प्राथममिता से बोई जाती है।
दलहन प्रोटीन का सशक्त स्त्रोत होने से भारतीयों के भोजन में इनका समावेश होता है। अरहर की प्रति 100 ग्राम दाल से ऊर्जा-343 किलो केलोरी, कार्बोहाइड्रेट-62.78 ग्राम, फाइबर-15 ग्राम, प्रोटीन-21.7 ग्राम, विटामिन जैसे; थाइमिन (बी1) 0.643 मिग्रा., रिबोफैविविन (बी2) (16%) 0.187 मिग्रा., नियासिन (बी3) 2. 965 मिग्रा तथा खनिज पदार्थ जैसे; कैल्शियम, 130 मिग्रा., आयरन 5.23 मिग्रा., मैग्नेशियम 183 मिग्रा, मैंगनीज 1.791 मिग्रा., फास्फोरस 367 मिग्रा, पोटेशियम 1392 मिग्रा, सोडीयम 17 मिग्रा., जिंक 2.76 मिग्रा आदि पोषक तत्व मिलते हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।
अरहर की खेती भूमि का चुनाव एवं तैयारी

इसे विविध प्रकार की भूमि में लगाया जा सकता है, पर हल्की रेतीली दोमट या मध्यम भूमि जिसमें प्रचुर मात्रा में फास्फोरस तथा पी.एच.मान 7-8 के बीच हो व समुचित जल निकासी वाली हो इस फसल के लिये उपयुक्त है। गहरी भूमि व पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्र में मध्यम अवधि कि या देर से पकने वाली जातियां बोनी चाहिए। हल्की रेतीली कम गहरी ढलान वाली भूमि में व कम वर्षा वाले क्षेत्र में जल्दी पकने वाली जातियां बोना चाहिए।देशी हल या ट्रेक्टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई करे व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। जल निकासी की समुचित व्यवस्था करें।
अरहर की खेती करने के लिए बोवाई का समय एवं बीज की मात्रा
अरहर की खेती वर्षा प्रारंभ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्यत: जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जूलाई के प्रथम सप्ताह तक बोवाई करें। जल्दी पकने वाली जातिओं में 25- 30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर एवं मध्यम पकने वाली जातीयों में 12 से 15 किलो ग्राम बीज / हेक्टेयर बोना चाहिए। कतारों के बीच की दुरी शीघ्र पकने वाली जातीयों के लिए 30 से 45 से.मी व मध्यम तथा देर से पकने वाली जातीयों के लिए 60 से 75 सें.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातीयों के लिए पौध अंतराल 10-15 से.मी. एवं मध्यम तथा देर से पकने वाली जातीयों के लिए 20 – 25 सेमी. पर रखें |
अरहर की खेती बीजोपचार
ट्रायकोडर्मा बिरीडी 10 ग्राम/किलो या 2 ग्राम थाइरम/एक ग्राम बेबीस्टोन (2:1) में मिलाकर 3 ग्राम प्रति किलो की दर से बीजोपचार करने से फफूंद नष्ट हो जाती है । बीजोपचार के उपरांत अरहर का राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम एवं पी.एस.बी. कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार उपरांत अरहर का राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम एवं पी.एस.बी. कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें । बीज को कल्चर से उपचार करने के बाद छाया में सुखाकर उसी दिन बोनी करें।
बोनी के पूर्व फफूदनाशि दवा से बीजोपचार करना बहुत जरूरी है। 2 ग्राम थायरस + ग्राम कार्बेन्डाजिम फफूदनाशि दवा प्रति किलो ग्राम बीज के दहसाब से उपिाररत करें। उपचारित बीजों को रायजेबियम कल्चर 10 ग्राम प्रति किलो बीज के हीसाब से उपचारित करें। पी.एि.बी. कल्चर का उपयोग करें।
अरहर की खेती उन्नत किस्मों का चुनाव

भूमि का प्रकार, बोने का समय, जलवायु आदि के आधार पर अरहर की जातियों का चुनाव करना चाहिए। ऐसे क्षेत्र जहाँ सिंचाई के साधन उपलब्ध हो बहुफसलीय फसल पद्धती हो या रेतीली हल्की ढलान वाली व कम वर्षा वाली असिंचित भूमि हो तो जल्दी पकने वाली जातियां बोनी चाहिए। मध्यम गहरी भूमि में जहाँ पर्याप्त वर्षा होती हो और सिंचित एवं असिंचित स्तिथि में मध्यम अवधि की जातियां बोनी चाहिए। जिनका विवरण निम्नवत है:
अरहर की उन्नत किस्म की विशेषताएँ
क्र.सं. | उन्नत किस्म | फसल अवधि (दिनों में) | उपज क्षमता (क्वंटल / है.) |
1 | नरेन्द्र अरहर-1 | 260-270 | 25-30 |
2 | नरेन्द्र अरहर-2 | 250-260 | 28-30 |
3 | आजाद अरहर | 260-270 | 25-30 |
4 | अमर | 200-270 | 25-30 |
5 | पूसा-9 | 250-260 | 25-30 |
6 | बहार | 250-260 | 25-30 |
7 | उपास-120 | 130-135 | 16-20 |
8 | पारस | 130-135 | 18-20 |
9 | शरद | 135-140 | 18-20 |
10 | मानक | 135-140 | 18-20 |
11 | टाइप-21 | 160-170 | . 16-20 |
अरहर की खेती के लिए भूमि का चुनाव एवं तैयारी
हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिए उपयुक्त है। खेत को 2 या 3 बाद हल या बखर चलाकर तैयार करना चाहिए। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे।
अरहर की खेती के लिए उर्वरक का प्रयोग
बुवाई के समय 20 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 50 कि.ग्रा. फास्फोरस, 20 कि.ग्रा. पोटाश व 20 कि.ग्रा. गंधक प्रति हेक्टेयर कतारों में बीज के नीचे दीया जाना चाहिए। तीन वर्ष में एक बार 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर आखिरी बखरीनी पूर्व भुरकाव करने से पैदावार में अच्छी बढ़ोतरी होती है।
अरहर की खेती में सिंचाई
जहां सिंचाई की सुववधा हो वहां एक सिंचाई फूल आने से पहले व दूसरी फलियाँ बनने की अवस्था पर करने से पैदावार अच्छी होती है।
अरहर की सफल खेती के लिए खरपतवार प्रबंधन
खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निदाई तथा फूल आने से पूर्व दुसरी निदाई करें। 2-3 बार खेत में कोल्पा चलाने से निदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है। पेंडीमेथीलीन 450 ग्राम सक्रीय तत्व प्रति हेक्टेयर बोनी के बाद प्रयोग करने से खरपतवार नियंत्रण होता है। निदा नाशक प्रयोग के बाद एक निदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना चाहिए।
अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एवं अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होगी। मुख्य फसल में कीटो का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति से कीटों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। अरहर / मक्का या ज्वार 2:1 कतारों के अनुपात में, (कतारों के बीच की दुरी 40 से.मी.), अरहर/मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों के अनुपात में उत्तम अन्तर्वर्तीय फसल पद्धतियाँ हैं।
पौध संरक्षण

रोग नियंत्रण
1. उकटा रोग
- इस रोग का प्रकोप अधिक होता है।
- यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है।
- रोग के लक्षण साधारणता फसल में फूल लगने की अवस्था पर दीखाई देते हैं |
- नवम्बर से जनवरी महीनों के बीच में यह रोग देखा का सकता है |
- पौधा पीला होकर सूख काता है |
- इसमें जड़े सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की उंचाई तक काले रंग की धारियां पाई जाती है।
- इस बीमारी से बचने के लिए रोग रोधी जातियां जैसे सी-11, जवाहर के.एम.-7, बी.एस.एम.आर.-853, आदी बोयें।
- उन्नत जातियों का बीज बीजोपचार करके ही बोयें। गर्मी में खेत की गहरी जूताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम होता है।
2. बांझपन विषाणु रोग
- यह रोग विषाणु से फैलता है।
- इसके लक्षण पौधे के उपरी शाखाओं में पत्तीओं छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल-फली नहीं लगती है। ग्रषित पौधों में पत्तियां अधिक लगती है।
- यह रोग, मकड़ी के द्वारा फैलता है |
- इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिए। खेत में उग आये बेमौसम अरहर के पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
- मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिए।
3. फायटोपथोरा झुलसा रोग
- ग्रषित पौधा पीला होकर सूख जाता है।
- इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्सील फफूंदनाशि दवा प्रति किलोग्राम बीज के हीसाब से उपचारित करें।
- बुवाई मेंड़ (रिज) पर करना चाहिए।
किट नियंत्रण
1. फली मक्खी
- यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है।
- इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौढ़ बनकर बाहर आती है।
- दानों का सामान्य विकास रुक जाता है।
- मादा छोटे व काले रंग की होती है को वृद्धिरत फलीयों में अंडे रोपण करती है।
- अंडों से मेगट बाहर आते हैं और दानों को खाने लगते हैं।
- फली के अंदर ही मेगट शंखी में बदल जाती है। जिसके कारण दानों पर तीरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है। तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
2. फली छेदक
- छोटी इल्लियाँ फलिओं के हरे उत्तको को खाती है व बड़े होने पर कलियों, फूलों, फलियों व बीजों को नुकसान पहुंचाती है।
- इल्लियाँ फलों पर टेढ़े-मेढ़े छेद बनानी है, इसकी किट की मादा छोटे छोटे सफ़ेद रंग के अंडे देती है |
- इल्लियाँ पीली, हरी, काली रंग की होती है तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियाँ होती है।
- अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
3.फल्ली का मत्कुण
- मादा प्रायः फल्लिओं पर गुच्छों में अंडे देती है|
- अंडे कत्थई रंग के होते है|
- इस कीट के शिशु वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं, जिससे फली आड़ी- तिरछी हो जाती है एवं दानें सिकुड़ जाते हैं।
- एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते हैं।
4. प्लू माथ
- इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है।
- प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी का सकती है।
- कुछ समय बाद प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फफूंद आ जाती है।
- मादा गहरे रंग के अंडे एक एक करके कलियों व फली पर देती है |
- इसकी इल्लियाँ हरी तथा छोटे छोटे किटो से घिरी रहती है|
- इल्लियाँ फलों पर ही शंखी के रूप में परिवर्तित हो जाती है।
- एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करती है |
5. ब्रिस्टल बीटल
- ये भृंग कलियों, फूलों तथा कोमल फलीयों को खाती है जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है।
- यह कीट अरहर, मूंग, उड़द, तथा अन्य दलहनी फसलों पर भी नुकसान पहुंचाता है।
- भंगृ को पकड़कर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।
अरहर की खेती में कीट प्रंबधन

कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित प्रणाली अपनाना आवश्यक है –
- गमी में खेत की गहरी जूताई करें |
- शुध्द अरहर न बोयें |
- फसल चक्र अपनाये |
- क्षेत्र में एक ही समय पर बोनी करना चाहिए |
- रासायनिक खाद की अनुषंसित मात्रा का प्रयोग करें।
- अरहर में अंतरवर्तीय फसलें जैसे ज्वार, मक्का या मूंगफली को लेना चाहिए।
यांत्रिक विधि
- प्रकाश प्रपंच लगाना चाहिए |
- फेरोमेन प्रपंच लगाये |
- पौधों को हिलाकर इल्लियाँ को गिराएँ एवं उनको इकट्ठा करके नष्ट करें।
- खेत में चिड़ियाओ के बैठने की व्यवस्था करें।
जैविक नियंत्रण
- एन.पी.वी 500 लीटर/हेक्टेयर/ यू.वी. रीटारडेंट 0.1% / गुड़ 0.5% मिश्रण को शाम के समय छिड़काव करें | बेसिलस युरेंजीयंसिस 1000 ग्राम प्रति हेक्टेयर/ टिनोपाल 0.1% / गुड़ 0.5% का छिड़काव करें |
- निम्बोली सत 5% का छिड़काव करें |
- नीम तेल या करंज तेल 10-15ml/1ml चिपचिपा पदार्थ जैसे सेडोविट या टिपाल प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें |
- निम्बेसिडीन 0.2% या अचूक 0.5% का छिड़काव करें |
रासायनिक नियत्रण
आवश्यकता पड़ने पर ही कीटनाशक दवाओं का छिड़काव या भुरकाव करना चाहिए |
- फलों मक्खी नियंत्रण हेतु सर्वंगीण कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करें जैसे डायमिथोएट 30 i.c. 0.03% मोनोक्रोटोफ़ॉस 36 i.c. 0.04% आदि |
- फली छेदक इल्लिओं के नियंत्रण हेतु फेनवलरेट 0.04% चूर्ण या क्विनालफास 1.5% या क्विनालफास 25 i.c. 0.05% या क्लोरोपायरीफास 20 i.c. 0.6% या फेनवेलरेट 20 i.c. 0.02% या एसीफेट 75 w.p. 0.0075% या एलेनिकाब 30 i.c. 500 ग्राम सक्रीय तत्व प्रति हेक्टेयर या प्रोफेनोफास 50 i.c. 1000ml प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें |
- दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु प्रथम छिडकाव सर्वंगीण कीटनाशक दवाई का करें तथा 10 दिन के अन्तराल सड़े स्पर्श या सर्वंगीण कीटनाशक का छिड़काव करें| कीटनाशक के 3 छिड़काव या भुरकाव पहला फुल बनने पर दूसरा 50 प्रतिशत फुल बनने पर और तीसरा फली बनने की अवस्था पर करना चाहिए |
कटाई,मड़ाई तथा भण्डारण
जब पौधें की पत्तियां गिरने लगे एवं फलियाँ सूखने पर भूरे रंग की पड़ जाये तब फसल को काट लेना चाहिए |खलिहान में 8-10 दिन धुप में सुखाकर ट्रेक्टर या बेलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है | बीजो को 8-9% नमी रहने तक सुखाकर भण्डारित करना चाहिए |
अरहर की खेती करने से उपज
उन्नत उत्पादन तकनीक अपनाकर अरहर की खेती करने से असिंचित अवस्था में 22-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है |